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आमदनी अठन्नी खर्चा रुपइया…

दस्तक
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मियां गफूर गाजियाबाद वाले चिलचिलाती धूप की गर्मी में तमतमाते हुए मन ही मन भनभना रहे थे। भला हो अण्णा का, अमां मियां अब अमेरिका से मोहतरमा गांधी आ गयीं है, विरोधी चिल्लम-चिल्ला मचाते रहें, कुछ नहीं कर पायेंगे। रोज की भांति मियां आज भी कल्लन पनवाड़ी के दुकान पर महफिल जमाये थे। दांतो तले दबे गुलकन्द वाले पान की महक भी बार-बार बाहर आने के लिए उफान मार रही थी। पान की पीक से सना उनके मुखारबिंद्र से निकले हरेक अल्फाज, अंजाम तक पहुंचने से पहले ही हलक के अंदर घूट कर रह जाती थी। मियां बार-बार मिसेज गाँधी की दुहाई दे रहे थे। कल्लन पनवाड़ी भी कम नहीं था, मजे हुए खिलाड़ी की भांति चचा के साथ वाकयुद्ध में उलझ गया। मंहगाई की दुहाई देकर बोला, चचा आपकी पतलून भले ही फटी हो लेकिन अब आप भी गरीब नहीं रहे। ऐसे कैसे कल्लन, कॉग्रेस की सरकार है, आम आदमी के साथ नाइंसाफी हो ही नहीं सकती। अरे वाह चाचा कमीज तो तुम्हारी पहले से ही उतर चुकी है, अब क्या पतलून भी उतरवाने का इरादा बना लिए हो। मंहगाई डायन पहले से ही डसे हुए है, अब तो योजना आयोग ने भी शहरी क्षेत्रो में 32 रूपए तथा ग्रामीण क्षेत्रो में 26 रूपए गरीबी रेखा का निर्धारण कर दिया है। भले ही योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहुवालिया को अपने विदेश यात्रा के दैरान औसतन प्रतिदिन का खर्च 11,354 रूपए चुकाना पड़ता हो, लेकिन देश में तो जल्द ही सब अमीर कहलायेंगे। कल्लन बड़ी चतुराई से गफूर मियां की हरेक बात का जबाब दे रहा था। टमाटर 40 रूपए प्रति किलो है, लेकिन मजदूरी 32 रूपए प्रति दिन। अर्थात आदमी की एक दिन की कीमत एक किलो टमाटर से भी कम है। इन गरीबो के लिए टमाटर खरीदना और खाना दोनो गुनाह के समान है। दूध इनके बच्चे को हजम ही नहीं होता यह अब सिर्फ सपना है। अगर इन्हे सिर्फ दिल्ली के अंदर ही काम करने जाना हो तो कम से कम आने-जाने का किराया 10 रूपए या दूर होने पर 30 रूपए, यदि थोड़ी और दूर नौकरी के लिए नोयडा, गाजियाबाद जाना हो तो फिर बात ही क्या कहने, यह सब तब, जब आदमी अकेला हो, ऐसे स्थिति में ये कमायेंगे क्या और खायेंगे क्या इस बात की परवाह तो तनिक भी नहीं है, अगर 32 रूपए की आय से ये 30 रूपए किराया ही देंगे तो दो रूपए में हो गयी इनकी परवरिश। एक ओर सरकार कहती है सब पढ़े सब बढ़े लेकिन कैसे?सरकारी क्षेत्रो में रोजगार के अवसर छटांग भर ही रहते है, ऊपर से उच्च शिक्षा के लिए सरकारी सहायता भगवान भरोसे ही चल रही है, ऐसी स्थिति में हो गया गरीबो का जनकल्याण। एक ओर वोट की राजनीति में आरक्षण का प्रलोभन तो दूसरी ओर योजना आयोग का चाबूक, दोनो की विपरीत परिस्थिति की स्थिति में विकास के एजेंडे पूरे होंगे कि नहीं यह कोई नही जानता। सरकार की इन दो धारी नीति में आम जन का मालिक भगवान ही है। योजना आयोग का मानना है कि दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरो में एक औसत परिवार जिसमें चार सदस्य हो उसके लिए 3860 रूपया काफी है और इसे गरीब नहीं कहा जा सकता है। अगर दिल्ली जैसे शहर में सिर्फ चार व्यक्ति के रहने लायक एक खोली भी किराये पर लिया जाय तो उसका भी किराया कम से कम 2000 है ऊपर से बिजली और पानी का बिल अलग से देना होता है। बच्चो के लिए शिक्षा-दीक्षा, दवा-दारू, कॉपी-किताब और वस्त्र भी मुफ्त में नहीं आते। हमारे देश के लिए यह आश्चर्य भरा विषय है कि जिस देश का प्रधानमंत्री महान अर्थशास्त्री हो वहां की जनता के साथ इस तरह का भेदभाव आश्चर्य ही नही अपितु अन्यायपूर्ण भी है।।

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