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क्या हम स्वतंत्र हैं ?

दस्तक
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निंद के आगोश में जाने से पूर्व मैं भविष्य की डोर में कल्पना के मोती पिरो रहा था। अचानक एक मैसेज बिन बुलाए मेहमान की तरह मेरे मोबाईल पर आ टपका।

क्यों मरते हो बेवफा सनम के लिए, मरना है तो मरो वतन के लिए,
हसिनांए भी दुपट्टा दे देंगी , कफन के लिए।।

मैंने पूछा बरखुर्दार आप कौन, जबाब आया अजी जनाब इतनी जल्दी भूल गए………….. कल स्वतंत्रता दिवस है, पिछली वार चाँदनी चौक में जलेबी की दुकान पर मुलाकात हुई थी। सहसा जेहन में ख्याल आया कि अब जलेबी भी 100 से 150 रूपये प्रति किलो हो गयी, चीनी 36 रूपये, दाल 80 रूपये, बेसन 60 रूपये, आटा 20 रूपये और पेट्राल 68 रूपये लिटर है। मंहगाई कमर तोड़ रही है।

चुनाव होते हैं, नेता आए, वादे किए, वोट लिए और चले गए। सरकार भी आर्थिक विकास की दर 4 फीसदी से ज्यादा दिखा कर अपने गुण-गाण में लगी है। हत्याएं हो रही है, स्त्रियों की आवरू की धज्जियाँ उड़ायी जा रही है। प्रशासन गूंगा-बहरा बना बैठा है। किसान आत्महत्या करने को मजबूर है। देश शक्ति प्रदर्शन कर रहा है। आम आदमी की आयु कलयुग के यमराज (गुंडे-मवाली ) के हाथों में है। बस उनकी दुआ से जिए जा रहे हैं। सरकार की नीति समझ से परे है, कि गरीबी हटाओं या गरीबों को हटाओं। आन्तरिक सुरक्षा इस प्रकार है, कि संसद में आतंकी हमला हो रहा है। गली-मुहल्ले में गीत गुंज रहे हैं कि………………

ए मेरे वतन के लोगो जरा आँख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्वानी

आखिर क्यों… क्या इसी स्वतंत्रता के लिए आजादी की लड़ाई लड़ी गयी थी। सन् 1857 में सिपाही विद्रोह के नायक मंगल पांडे ने क्या इसी स्वतात्रता की नींव रखी थी। सन् 1947 में जब देश आजाद हुआ तो लोगों में इस बात की लहर थी कि अब सर उठा कर जीने का समय आ गया है। अब अंग्रेजो की सामंतवादी नीति से मुक्ति मिलेगी। हम हक के साथ जी सकेंगे। 26 जनवरी 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ तो इसमें लिखित रूप से उद्देशिका का वर्णन किया गया कि “हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रनात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिको को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मर्पित करते हैं।” संविधान में उद्देशिका समावेश करने का एक मात्र लक्ष्य था कि भारत के लोग ही संविधान के मूल स्रोत्र हैं। भारतीय राज्य व्यवस्था में प्रभुत्व लोगो में निहित होगी और भारतीय राज्य व्यवस्था लोकतंत्रनात्मक है जिसमें लोगों को मूल अधिकार और स्वतंत्रता की गारंटी दी जाएगी।

सन् 1964-66 के दौरान समकालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने देश में कृषि के विकास, किसानों की समस्या एवं राष्ट्र की रक्षा के लिए जय जवान जय किसान का नारा दिया। सन् 1998-2004 में अपने कार्यकाल के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस नारे में जय विज्ञान जोड़कर देश में कृषि, सुरक्षा एवं तकनीक के समुचित विकास पर वकालत की। ऐसा हुआ भी माननीय भूतपूर्व राष्ट्रपति एवं वैज्ञानिक डा. ए.पी.जे अब्दुल कलाम के संरक्षण में भारत ने दुनियां को अपनी शक्ति का एहसास कराया। खुशी की यह मुस्कान अभी भारतवासियों के चेहरे से गई भी नही थी कि चारा घोटाला, 2G स्पेक्ट्र्म, कॉमनवेल्थ गेम, सत्यम और आदर्श सोसायटी जैसे घोटालों ने मानवता के चेहरे पर कालिख पोत दी।

भारत दुनिया के ऐसे देशो मे शामिल है जहां नागरिको को मूल अधिकार दिए गए है, लेकिन बंदूक की नोक पर इसका हनन करना आम बात हो गया है। कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म की आड़ में आपसी फूट डालने वाले हमारे राजनेताओं ने अपनी आजादी की खातिर देश को ताख पर रख दिया। 8 फीसदी से ज्यादा आर्थिक विकास और 54,835 रूपये प्रति व्यक्ति आय वाले इस देश में गरीबी रेखा का निर्धारण ग्रामीण क्षेत्र में मात्र 26 रू तथा शहरी क्षेत्र में 32 रू प्रति व्यक्ति प्रति दिन रखा गया है। आज जब भष्टाचार-समाप्ति की बात की जाती है तो बेरहमी से लाठियों से पीट-पीट कर दबा दिया जाता है। आज भी देश में विकास के नाम पर लोगों से अंगूठा लगवाने की प्रथा कायम है। आज संसद में अभद्र भाषा का प्रयोग धड़ल्ले से किया जाता है। आम आदमी आर्थिक बोझ से दबता जा रहा है वहीं राजनेता नित नए कागजी कानून बना कर लोगों की विवशता को अपनी सम्पन्नता में बदल रहे हैं।

आज स्थिति यह है कि हम उपभोक्तावादी सोच के तले दबते जा रहे है। कभी अपनी सर्वांगीन उत्पादक्ता से दुनियां की आर्थिक मंदी से सुरक्षित रहने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था आज उपभोक्तावाद के मकड़जाल में दिन-प्रतिदिन जकड़ता जा रहा है। आज किसान खेती नही करना चाहता, हर कोई विलासता संबंधी वस्तुओं की ओर अग्रसर है, ब्रांड की चाह हर किसी को है, कारण चाहे जो भी हो आने वाले समय में यह गुलाम- मानसिकता की ओर संकेत करता है।

देश की स्थिति यह है कि नल है पर पानी नही आता है। सड़को पर जगह-जगह गड्ढे़ है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो लोग जानते भी नही कि बिजली किस वला का नाम है। वादे किए जाते हैं सिर्फ तोड़ने के लिए। नेता आते हैं, नारा लगाया जाता है………. तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा, लेकिन किससे वर्तमान कुव्यवस्था से या उनके अधिकार से ? आज भी देश की 64 फीसदी आबादी गाँवों में निवास करती है, जो नेताओं के रोजगार के साधन है। इनका सिद्धांत है, गरीब मर रहा है तो मरने दो, इनके मरने से ही देश की गरीबी दूर होगी। जनता भी अपने मन में बैठा चुकी है, यही स्वतंत्रता है, यही हमारा भाग्य है, इसे ही गणतंत्र कहते हैं। इन सभी तथ्यों से अनायास ही मधुकर की यह पंक्तियाँ याद आ जाती ह

क्या भारत स्वतंत्र है……….
राहू इसको ग्रस रहा है,
केतु का यह यंत्र है,

देश में फैल रही चहुदिश,
अनियमित्ता सर्वत्र है,

केन्द्र में है कौरव बैठा
राज्य में तो कंस है,
कौन कहता है कि
भारत आज भी स्वतंत्र है।।

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