दस्तक
- 16 Posts
- 13 Comments
नहीं रहे वह बाग-बगीचे
नहीं मिली ममता की थाली
मै बेचारी एक अभागी
भटक रही बन कर भिखारी।
भोजन, भजन, भवन की कल्पना
देखी मैंने जीवन सारी
कौन बताए क्या खता है
जूठन को भी तरस रही हूँ
देख रहा है कृष्ण मुरारी।
टूट गए अब अधर के सपनें
टूटे जग से रिस्तें सारी
बूंद-बूंद को तरस रही हूँ
कोई पिला दे जहर की प्याली।
माँ ने मुझे जन्म दिया
मृत्यू को वह वरन किया
कौन हमारा बाप हमारा
खोज-खोज मैं जग से हारी।
देख रही थी जग-जननी
पतित पावन मेरी करनी
देवी नही तारणी बनी थी
मैं तार रही थी जग को सारी
तन थे मेरे बाग-बगीचे
लोग मुझे अपनी ओर खींचे
नोच-खसोट रक्त-रंजित मैं
बिछ रही थी मर्दो के नीचे
काश मैं एक औरत होती
पति, पिता, माँ मेरी होती
राजकुमार की कल्पना में
राजकुमारी मैं भी होती।।
Read Comments