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सरोकार से बनती-बिगड़ती भाषा

दस्तक
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जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख, उसके बाद हमसे बड़ा भी लिख। भवानी प्रसाद विष्ट की यह पंक्ति हिन्दी पित्रकारिता के संदर्भ में उपर्युक्त जान पड़ती है। अगर बात भाषा की करें तो भाषा शब्द, संस्कृत के भष् धातु से बना है, जिसका अर्थ वाणी को व्यक्त करना अथवा बोलना है। इसके द्वारा हम अपनी भाव, विचार, और अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकते हैं। कामता प्रसाद गुरू के अनुसार भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों तक भली-भांती प्रकट कर सकता है तथा दूसरों का विचार स्पष्टतः समझ सकता है। मनुष्य का कार्य उसके विचार से उत्पन्न होते है और इन कार्यो के लिए दूसरें की सहायता की आवश्यकता पड़ती है तथा सहायता प्राप्त करने के लिए उसे दूसरे पर अपना विचार प्रकट करना पड़ता है। इसलिए भाषा जगत के व्यवहार का मूल है।
वास्तव में भाषा एक साधन है, जो मनुष्य को मनुष्य से संवाद स्थापित करने का सरल, सुगम एवं सम्पन्न माध्यम है। प्राचीनकाल में जब सभ्यता का विकास नहीं हुआ था तो मनुष्य फल खाकर तथा वृक्षो पर अपना गुजर-बसर करता था। उस समय मनुष्य ने अपने विकास के लिए संचार की जरूरत को समझा फलस्वरूप भाषा का उदय हुआ। वर्तमान संदर्भ में मीडिया की भाषा के बारे में बात की जाए तो आज दूरदर्शन से लेकर तमाम मीडिया हाऊस में हिंदी साहित्य, ज्ञान-विज्ञान की परंपरा, क्लासिकल चेतना, संवेदना के लिए जगह ही नहीं है। वहां केवल विज्ञापनदाता का घटिया बाजारवाद, देहवाद, यौनलिप्सा, जीभ और जांघ का भूगोल अपनी उपभोक्तावादी संस्कृति की ऊंची उड़नों के साथ शेष रह गया है। हमारा प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया भाषा और साहित्य का सबसे संहारक शत्रु बनकर खड़ा है। वह हमारी सांस्कृति अस्मिता, जातीय मिथक, आख्यानों, प्रतिकों व चरित्रों को मिटाने पर आमदा है। इनका बहाना यह है कि हम क्या करें, विचारधाराओं के अंत के साथ महान आख्यानकों का भी अंत हो गया है। मीडिया का यह पागल पश्चिमवाद भाषा संस्कृति का दुश्मन है। एक दौर था जब भारतेन्द्रु ने सामाजिक सरोकार को भाषा से जोड़ते हुए लिखा था कि ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति के मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल’। अर्थात किसी व्यक्ति, समाज या देश का विकास किसी विदेशी भाषा में नहीं वरन देश की अपनी भाषा में ही संभव है। पिछले दिनो एन.डी.टीवी के समाचार सम्पादक प्रियदर्शन ने टेलीविजन की भाषा से छात्रों को अवगत कराते हुए कहा कि भाषा सरोकार से बनती है वहीं शब्दों का निर्माण उसकी छवि से होता है। हम जब भी किसी से बात करते हैं तो एक ही भाषा अपने सरोकार के अनुसार बदलती रहती है। पिता से बात करने का लहजा कुछ और होता है तो दोस्तो से बात करने का अलग। एक भाषा में जहां आदर झलकता है तो दूसरी में बाजारवाद लेकिन हम जब भी मी़डिया के लिए भाषा का प्रयोग करते हैं तो यह आडंबर मुक्त होना चाहिए। आज मीडिया में प्रयोग होने वाले ऐसे शब्दो की भरमार है, जो इनकी खामियो को उजागर करता है। आशंका और संभावना ऐसे ही शब्द है जिनका धड़ल्ले से बिना सोचे-समझे प्रयोग होता है। आशंका का अर्थ जहां नकारात्मक है, वही संभावना का तात्पर्य सकारात्मक है। इसी प्रकार गरीबी और दरिद्रता सुनने में एक जैसे है, लेकन दोनो के भावार्थ अलग है। गरीबी में व्यक्ति का जहां स्वाभिमान झलकता है वही दरीद्रता में वह नाकारात्मक भावना से ग्रसित होता है। ठीक इसी प्रकार कोशिश और प्रयत्न का रिश्ता है कोशिश छोटे स्तर पर किया गया प्रयास है, वहीं प्रयत्न बड़े स्तर पर। छूपना और छिपना सुनने में अलग लगते है, लेकिन दोनो का भाव एक ही होता है। आज मीडिया भाषिक शब्दों से परे होकर भड़काऊ भाषण अधिक है, जिसके कारण इसकी लोकप्रियता प्रतिदिन घटती जा रही है। आज जगह-जगह मीडिया संस्थान कुकुरमुक्ते की तरह खुल रहे है, जहां रोजगार की संभावना की झूठी फरेव में छात्रों को बरगलाया जाता है। आज सफलता के लिए संस्थान से अधिक समाज में रह कर सीखने की जरूरत है। है। आज टेलीविजन की भाषा में जिज्ञासा का होना आवश्यक है ताकि दर्शक को रोका जा सके। वर्तमान में दिन-प्रतिदिन टी.वी की बिगड़ती भाषा के संदर्भ में इसके इतिहास की चर्चा करते हुए इसे चार भागों में व्यक्त किया जा सकता है। पहला चरण नेहरू जी का समय था जब मीडिया केवल सरकार के हित में ही कार्य करती थी। दूसरा चरण 70 का दशक जब आपातकाल का समय था, उस समय मीडिया सरकार विरोधी कार्य कर रही थी। तीसरा चरण 90 का दौर था इस समय मीडिया में विज्ञापन की लोकप्रियता बढ़ी, इसके बाद मीडिया की भाषा विज्ञापन की भाषा हो गयी। चौथा चरण वर्तमान समय है अब मीडिया समाज सेवा नही अपितु व्यवसाय अधिक है।

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