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हम और हमारी हिन्दी

दस्तक
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भाषा के भीतर जो अनुभुति है, भाषा के बाहर वही कर्म है। किसी भी व्यक्ति की पहचान उसकी परिपक्वता एवं परिपूर्णता उसके द्वारा बोले गए शब्दों से होती है। भाषा के विषय में कहा जाता है कि भाषा ध्वनी प्रतिको की ऐसी व्यवस्था है, जिसके माध्यम से किसी समाज के सदस्य परस्पर भावों और विचारों को बोलकर या लिखकर आदान-प्रदान कर सकते हैं। वरिष्ट साहित्कार राजेन्द्र यादव के अनुसार भाषा न बिगड़ती है, न सुधरती है। वह सिर्फ बदलती है। जो लोग शुद्धता की दुहाई देकर या किसी भी वजह से इसमे होने बाले बदलावों को विरोध करते हैं वे इसके दुश्मन है। दरअसल जिंदगी लगातार विकसित होती चीज है। इसमें नए विचार, नई चीजें, नए उपकरण, नई तकनीक, नए संचार के माध्यम जुड़ते रहते है। हिन्दी इस लिहाज से समृद्ध भाषा है। और हमेशा आंदोलन की भाषा रही है, समाजिक संवाद की भाषा रही है। पूर्व से लेकर पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक इसे पढ़ने-लिखने बाले रहे हैं। राजनैतिक तौर पर भले ही कुछ प्रदेशो में इसका विरोध रहा हो लेकिन वहां भी इसे सीखने वालों की कमी नहीं रही है। हिन्दी की एक खासियत है कि यह हमेशा लचीली  भाषा बन कर रही है।

हिन्दी के भविष्य की बात की जाए तो बड़े अफसोस की बात है कि देश के प्रभुत्तव सम्पन्न वर्ग आज अंग्रेजी पर अधिक जोर दे रहे हैं। शायद उन्हें मालूम नहीं कि आज केवल इंग्लैण्ड, अमेरिका से हमारा काम नही चलने वाला है। आज का बाजार चीन, जापान और फ्रांस जैसे देश है, जहां अंग्रेजी नही बोली जा सकती। अतः आज जिस किसी को भारतीय बाजार में व्यापार करना होगा, उसे हिन्दी सिखनी होगी। इतना ही नहीं, जब देश गुलामी की जंजीर में जकड़ी थी उस समय हिन्दी ने गागर में सागर भरने का कार्य किया। इसने देश की सोयी जनता को झकझोड़ा, उस समय महात्मा गाँधी, प्रेमचंद्र, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, जैसे महान व्यक्तियों ने अपने पत्र के माध्यम से जन-जन तक स्वतंत्रता की कल्पना को पहुंचाया। स्वाधिनता के बाद लोगों में हिन्दी भाषा को लेकर काफी उत्साह था। उस समय काफी जद्दोजहद के बाद संसद द्वारा भारत की तमाम भाषाओं के रहते हुए हिन्दी को अंग्रेजी के स्थान पर राजभाषा के रूप में स्वीकार किया। साथ ही एक शर्त रखी गयी कि अंग्रेजी तब तक जारी रखा जाए जब तक कि हिन्दी स्वयं सामर्थ न हो जाय। लेकिन वर्तमान परिपेक्ष में देश की आर्थिक, राजनीतिक विकास के साथ स्थिति भी बदल गई। आज आम तौर पर देखा जाए तो अंग्रजी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, और जब तक कोई बड़ा  जनआंदोलन नही होता तब तक लगता है कि यह स्थिति नहीं बदलेगी। यह हमारी भाषा के दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी में बोलचाल की अलग भाषा है तथा लेखन कला की अलग। बोलचाल बाली हिन्दी का सबसे बड़ा माध्यम इलेक्ट्रानिक मीडिया है, जहां हमलोग भाषा की खिचड़ी खा रहे है। आज बड़े पैमाने पर हिंग्लिश का प्रयोग हो रहा है। हमारे देश मे मीडिया को देश और समाज का दर्पण माना जाता है और जब दर्पण में ही दो तस्वीर दिखने लगे तो भगवान ही मालिक है।       हम सभी जानते हैं कि शिक्षा के लिए बनाई गई सरकारी हिन्दी शिक्षा के प्रसार में स्वयं एक बाधा है। शिक्षाविद प्रो. कृष्ण कुमार ने स्वयं यह प्रश्न उठाया है कि ज्ञान का कोई भी विषय प्रस्तुत करने के लिए हमने  ऐसी भाषा को स्वीकृति दे रखी है जिसमें बोली हुई हिन्दी का स्पंदन नही है। हिन्दी माध्यम की अधिकांश पुस्तकें अंग्रेजी का अनुवाद हैं और भ्रष्ट अनुवाद है। हम निरंतर पश्चिम के अंधानुकरण में लिप्त हैं। उन्हें अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाने वालों की जरा भी परवाह नहीं है। रघुवीर सहाय के शब्दों में  ‘हिन्दी आज दुहाजू की बीवी बनकर रह गई है।’ हमारे बुद्धिजीवी नेता, शिक्षाविद, समाज सुधारक हिन्दी से मुंह मोड़ रहे है। यह हमारी हिन्दी संस्कृति की सबसे बड़ी विडंबना है। ऐसा भी होता आया है कि हिन्दी की ताकत को तोड़ने के लिए उसे हिंदुत्व से, सांप्रदायिकता से जोड़ दिया जाता है। उस पर सेकुलरिज्म का प्रतिमानी डंडा चलाया जाता है। यह हिन्दी भाषा-साहित्य के दुश्मनों की एक अलग राजनीति है।

ऐसी बात नहीं है कि हिन्दी विश्व भाषा नहीं बन सकती। इसमें विश्व भाषा बनने की पूरी संभावना है, लेकिन उस ओर हमारा प्रयास अधूरा और अपर्याप्त है। प्रश्न उठता है कि जो भाषा अपने ही देश में अनादर को प्राप्त है, अमान्य है, वह विश्व भाषा कैसे हो सकती है? प्रश्न यह भी है कि क्या सही में हिन्दी भारत की राष्ट भाषा है? जानकारो का कहना है कि यह एक संवैधानिक झूठ है। एक भुलावा है, जनता से छल है क्योंकि सारा बुनियादी कामकाज अंग्रेजी में होता है। संसद को बने साठ से अधिक वर्ष हो गए। एक भी कानून भारत की राजभाषा हिन्दी में पारित नहीं हुआ। यहां तक कि कोई भी कानून हिन्दी में लिखा तक नहीं गया। आज हमारे नौकरशाह, न हिन्दी में लिख सकते हैं, न पढ़ सकते हैं, न बोल सकते हैं। हमारी गुलामी की भाषा में वे लोग लिखते-पढ़ते हैं। हमारे प्रधानमंत्री और मंत्री मुलतः अंग्रेजी में बोलते है। सभी जानते हैं कि राष्ट की अस्मिता, जातीय स्मृति और पहचान उस राष्ट की भाषा में होती है पर उस भाषा की हम निरंतर उपेक्षा-अपमान में लगे रहते है।

वर्तमान समय में यह सोचनीय विषय है कि आखिर क्या कारण था कि देश में स्वाधिनता संग्राम से लेकर जनलोकपाल विधेयक की भाषा हिन्दी रही। यहां तक कि एक मराठी मानुष ने अपनी खास भाषा शैली में रामलीला मैदान के मंच से लगातार हिन्दी में राष्ट को संबोधित किया। यही हिन्दी की महिमा है। हिन्दी हमारे देश की जरूरत है। जनहित के सारे आंदोलन को हिन्दी में होना इसकी शक्ति को दर्शाता है। 16 अगस्त से 27 अगस्त तक चले अण्णा के आमरण अनशन को पूर्ण रूप से सफल होने का कारण भी हिन्दी ही थी। अण्णा हजारे को पता था कि यदि जनता से बातें करनी है तो हिन्दी में ही करनी होगी। यही कारण है कि चुनाव के समय अंग्रेजी पत्रकार के मुकाबले हिन्दी पत्रकार की ताकत बढ़ जाती है।        ऐसा माना जाता है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ ही भाषा के विकास की प्रक्रिया आरंभ हो गयी थी। उस समय हमारे पूर्वजों ने जनमानस से संचार स्थापित करने के लिए सर्वमान्य भाषा की जरूरत समझी, फलस्वरूप ईसा से 1500 से 1000 वर्ष पूर्व इसकी नींव रखी गयी। इसका विस्तृत स्वरूप आज हमारे सामने मौजूद है। जहाँ तक भाषा की परिपक्वता की बात है, तो समय-समय पर अनेक विद्वान हुए जिन्होने इसमे व्यापक सुधार का सुझाव दिया, जिसमें विष्णुराव पराडकर, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, आदि का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। इतना ही नही हिन्दी को सुव्यवस्थित एवं सम्पन्न बनाने के लिए हिन्दी में पृथक व्याकरण की रचना की गयी। वर्तमान समय में हिन्दी भाषा का प्रसार कश्मीर से कन्याकुमारी तक है। आज 42 फीसदी लोग हिन्दी बोलते हैं, साथ ही 30 फीसदी लोग को हिन्दी का ज्ञान भी है। फिर भी इसे सुनकर मन में क्षोभ उत्पन्न होता है, कि हम हिन्दी भाषी अहिन्दी भाषी के अपेक्षा अपनी भाषा का अधिक गलत तरीके से इस्तेमाल करते हैं।  हम हिन्दी बोलते है, हिन्दी में सोचते है। हिन्दी रोजगार, सम्मान और संतुष्टी तीनो की भाषा है। स्वतंत्रता के समय इस भाषा की सुगमता एवं सहजता का परिणाम था कि इसे 14 सितम्बर 1949 को राजभाषा बनाया गया। आज हमारे सामने यह चुनौति है कि हम किस प्रकार अपने द्वारा उपेक्षित राष्टभाषा को फिर से सम्मान देते हैं।

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