दस्तक
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सतयुग में दुर्गा
कलयुग में काली
मगर घर में है सुनती
भर पेट गाली।
उससे भी मर्दो की पुरी न हो इच्छा,
फिर लेते हैं प्रेम परीक्षा।
मार-पीट से मन न जो भाए,
लाक्षागृह का रास रचाए।
घर-परिवार के अभिमान में नारी,
तोड़ती रोज लाज की आरी।
धन-दौलत की रखती नही इच्छा,
जीवन भर करती प्रेम प्रतिक्षा।
चलती रही जो अग्नि पथ पर,
अंत हुआ अनल में तप कर।
कहां गए हे कृष्ण मुरारी,
दौरो-दौरो खिंची जा रही फिर द्रौपती की साड़ी।
शस्त्र उठाओ हे जगत पिता,
क्या जलती रहेगी यू ही चिता।
पत्थर की मूरत त्याग करो,
दुष्टों को तुम संहार करो।
जग की है जो जननी,
धधक रही आज उसकी चिता की अग्नि।।
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